शनिवार, 4 फ़रवरी 2012

महात्‍मा गांधी ने आकाशवाणी दिल्‍ली से कितने पैसे लिए थे?

बहुत से लोगों का यह भी मानना रहा है कि आज़ादी के बाद महात्मा गाँधी का सम्मान कम होने लगा था. यहाँ तक कि कॉंग्रेस पार्टी में भी उनकी पूछ कम होने लगी थी. अब सच्चाई जो भी हो मगर आज का दिन भारत के इतिहास का वह स्‍याह दिन है, जिस दिन सन १९४८ में  अहिंसा के अद्भुत पुजारी एवं अतुलनीय महापुरुष को नाथूराम गोड़से की गोली का शिकार बनना पड़ा था. आज जबकि पैंसठवे शहीदी दिवस पर राष्ट्र कृतज्ञता से उन्हें याद कर चुका है ऐसे में यह विचारने की ज़रुरत भी पेश आती है कि आज़ादी के बाद गांधी जी के आदर्शों पर हमारा देश, देश की सरकारें, सरकारी नौकर इत्यादि कितना चल रहे हैं. निस्संदेह सरकारी कार्यालयों में गाँधी जी की तसवीरें लटकी मिल जाएँगी और कई बार तो ऎसी हालत में मिलेंगी कि आपको शर्म आएगी. मगर तस्‍वीरें अगर बहुत चमाचम लगा दी जाएं तो भी कोई ऐसी स्थिति नहीं हो जाती कि शर्म न आए क्योंकि गाँधी जी तो आज उपहास के पात्र बन ही चुके हैं. यदि भाजपा या कम्युनिस्टों के शासन में ऐसा हो तो बात फिर भी समझ आये, मगर उनके नाम का खाने और डकारने में अग्रणी कॉँग्रेस पार्टी के शासन में ऐसा हो तो थोड़ा आश्चर्य होता ही है. थोड़ा इसलिए क्योंकि ज्यादा आश्चर्य करने जैसी कोई बात अब शायद बची ही नहीं है.

कॉँग्रेस के शासनकाल में दिल्ली के एक अति महत्वपूर्ण कार्यालय में गाँधी जी को जिस हल्केपन से लिया गया उसे जान आपको भी थोड़ा आश्चर्य तो होगा ही. हम आपका ध्यान एक आरटीआई के जवाब की तरफ ले जाना चाहेंगे जो प्रसार भारती, आकाशवाणी दिल्ली केंद्र द्वारा २० मई २०११ को एक प्रार्थी को भेजा गया था. उससे पहले हम आपको यह बताना चाहेंगे कि गाँधी जी १९४७ में सिर्फ एक बार आकाशवाणी के दिल्ली स्टूडियो में एक रिकॉर्डिंग के लिए आए थे और प्रार्थी द्वारा पूछे गए कुछ सवालों के बीच एक सवाल यह भी था कि क्या महात्मा गांधी जी को आकाशवाणी ने कोई भुगतान किया था? जिसका जवाब आकाशवाणी दिल्ली केंद्र द्वारा कुछ यूँ दिया गया "राष्ट्रपिता महात्मा गांधी केवल एक बार १२ नवम्बर १९४७ को आकाशवाणी दिल्ली के स्टूडियो में पधारे थे, उस समय उनको भुगतान हुआ था या नहीं, यदि हुआ था तो कितना, इसका कोई रिकॉर्ड आकाशवाणी दिल्ली के पास उपलब्ध नहीं है." यानी आकाशवाणी के अधिकारी इस मामले में अपना संशय व्यक्त कर इस बात की संभावना से इन्कार नहीं कर रहे हैं कि अपना सर्वस्व त्याग कर लंगोटी पहनने वाले उस महात्मा को उनके कार्यालय ने कोई भुगतान किया होगा. और यही नहीं उसमें यह भी जोड़ रहे हैं कि "यदि हुआ था तो कितना, इसका कोई रिकॉर्ड आकाशवाणी दिल्ली के पास उपलब्ध नहीं है."

यदि आकाशवाणी के अधिकारियों के दिल में महात्मा गाँधी के प्रति सम्मान होता तो वे इस मामले में जांच करके (यदि उन्हें गांधी जी को भुगतान दिए जाने का संदेह था तो) जवाब में लिखते कि गाँधी जी को कोई भुगतान नहीं किया गया था. और यदि इनमें आलस्य के मारे जांच करने की भी सामर्थ्य नहीं बची थी तो इस जवाब की जगह कम-से-कम यही लिख देते कि  "सूचना उपलब्ध नहीं है". मगर अपने आकस्मिक कर्मचारियों के भुगतान और उनके हितों के मामले में मनमानी ढील बरतने और हरदम सब कुछ सिर्फ अपने पेट में ठूंसने की सोचने वाले इन बाबुओं को राष्ट्रपिता की प्रतिष्ठा की भला क्या परवाह होगी. वैसे यह किसी शोधार्थी के लिए एक महत्वपूर्ण शोध का विषय ज़रूर हो सकता है कि गाँधी जी आकाशवाणी दिल्ली में अपना सन्देश बोलने के कितने पैसे लेकर गए थे. और इस पर शोध होना भी चाहिए ताकि गाँधी इस संदेह से तो बरी हो सके. पर क्या गाँधी के नाम पर खाने वाली केंद्र सरकार इस बात की परवाह करेगी?
  Curtsey : bhadas4media

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