गुरुवार, 21 जुलाई 2011

अरे! इन पत्रकारो का भी अपमान

प्रभाष जी के निधन के बाद उनकी स्मृति को संजोने के लिए न्यास बनाने का विचार उनके करीबी लोगों व परिजनों के दिमाग में आया तो न्यास के नामकरण का काम आलोक तोमर ने किया. आलोक तोमर के मुंह से निकले नाम को ही सबने बिलकुल सही करार दिया- ''प्रभाष परंपरा न्यास''. प्रभाष जोशी नामक शरीरधारी भले इस दुनिया से चला गया पर प्रभाष जोशी संस्थान तो यहीं है. प्रभाष जी की सोच, विचारधारा, सरोकार, संगीत, क्रिकेट, लेखन, जीवनशैली, सादगी, सहजता... सब तो है..

और उनसे जुड़े लोग शिद्दत से महसूस करते हैं कि प्रभाष जोशी की जो स्टाइल है, जो दर्शन है, जो जीवनशैली है... उसे समवेत रूप में कहें तो जो परंपरा है, उसको आगे बढ़ाया जाना चाहिए. इसी कारण आलोक तोमर के मुंह से निकले 'प्रभाष परंपरा' को कोई खारिज नहीं कर पाया क्योंकि ये दो शब्द खुद ब खुद प्रभाष जोशी नामक शरीरधारी के न रहने और प्रभाष जोशी नामक संस्थान के काम को आगे बढ़ाने की जरूरत महसूस कराने के लिए बिलकुल सटीक लगे. तो, इस ''प्रभाष परंपरा न्यास'' का गठन हुआ. लेकिन हद देखिए कि कुछ लोगों ने उसमें न्यास में आलोक तोमर को ही शामिल नहीं होने दिया. जिस प्रभाष जोशी और आलोक तोमर के नाम को जनसत्ता का पर्याय माना गया और जो आलोक तोमर दुनिया भर को डंके की चोट पर बताता रहा कि प्रभाष जोशी मेरे गुरु हैं, पिता तुल्य हैं, भगवान हैं, उनसे कोई पंगा लेगा तो नंगा कर दूंगा... और ऐसे पंगों के अनेक मौकों पर आलोक तोमर लाठी लेकर प्रभाष विरोधियों को नंगा करने दौड़ पड़े.... उन्हीं आलोक तोमर को प्रभाष परंपरा न्यास में शामिल नहीं किया गया.

कहते हैं, अच्छे लोग जल्द दुनिया छोड़ जाते हैं. प्रभाष जोशी चले गए तो उनकी याद को अमर रखने के लिए और उनकी परंपरा को आगे बढ़ाने के लिए न्यास का नामकरण करने के बाद एक दिन आलोक तोमर भी इस फानी दुनिया को नमस्ते कर चले. आलोक तोमर को इंदौर के लोग बहुत चाहते थे. आज भी चाहते हैं. इंदौर प्रेस क्लब के बुलावे पर वे पिछली बार भाषाई पत्रकारिता महोत्सव में इंदौर गए भी थे, अपनी पत्नी व पत्रकार सुप्रिया रॉय के साथ. आलोक तोमर के अचानक निधन से छाए मातम के बीच इंदौर प्रेस क्लब ने घोषणा कर दी कि वे लोग हर साल भाषाई महोत्सव में एक यशस्वी पत्रकार को आलोक तोमर की स्मृति में पुरस्कार देंगे ताकि आलोक तोमर के नाम व काम को जिंदा रखा जा सके और उनके इंदौर से लगाव को भी याद किया जा सके.

इस घोषणा के बारे में बाकायदे खबरें भी प्रकाशित हुई. पर जब आलोक तोमर के नाम पर पुरस्कार देने का मौका आया तो किसी को आलोक तोमर और उनकी पत्नी का नाम ही याद नहीं आया. इंदौर प्रेस क्लब और प्रभाष परंपरा न्यास की तरफ से जो दो दिनी महोत्सव इंदौर में आयोजित किया गया, उसमें आलोक तोमर का कोई नामलेवा न था. और तो और, आलोक तोमर की पत्नी और पत्रकार सुप्रिया जी को बुलाया तक नहीं गया. हालांकि कार्यक्रम होने के काफी पहले सुप्रिया जी से कहा जाता रहा कि आलोक तोमर की स्मृति में एवार्ड दिया जाना है इसलिए आपको आना ही पड़ेगा, आप अपनी मेल आईडी दे दीजिए ताकि आपको टिकट भेजा जा सके आदि इत्यादि. पर बाद में किसी को याद नहीं रहा कि आलोक तोमर की स्मृति में पुरस्कार दिया जाना है और यह भी कि सुप्रिया जी को न्योता देकर भी टिकट नहीं भेजा गया. और न ही किसी ने उन्हें फोन कर न बुला पाने के लिए खेद प्रकट किया.

कहने वाले तो यहां तक कह रहे हैं कि पूरी राजनीति रामबहादुर राय की है. आलोक तोमर को जीते जी भी राम बहादुर राय ने इसलिए पसंद नहीं किया क्योंकि आलोक तोमर उनकी लकीर के फकीर नहीं बने. आलोक तोमर अपने अंदाज में बिंदास और बेबाक लेखन करते रहे और इसी शैली में जीवन जीते रहे. आलोक तोमर ने जरूरत पड़ने पर राम बहादुर राय का विरोध भी किया. राम बहादुर राय के करीबियों का कहना है कि राय साहब की ये आदत है कि वे जहां होते हैं, वहां अपने अलावा किसी और की चलने नहीं देते और इसका भी ध्यान रखते हैं कि कोई और उनसे महान न बन जाए. यही कारण है कि इस बार राम बहादुर राय के आभामंडल में इंदौर प्रेस क्लब इस कदर उलझा कि काफी कुछ गोड़गोबर हो गया.

राम बहादुर राय खुद जहाज के टिकट से इंदौर गए और कार्यक्रम खत्म होने पर जहाज से ही इंदौर से सीधे दिल्ली लौट आए. पर उन्होंने करीब ढाई दर्जन छोटे-बड़े पत्रकारों को ट्रेन के स्लीपर से उमस भरी गर्मी में दिल्ली से इंदौर भेजा. लौटने के लिए स्लीपर का भी टिकट कनफर्म नहीं हो सका इस कारण 25 से ज्यादा पत्रकार बिना वजह 48 घंटे से ज्यादा इंदौर में यहां-वहां पड़े रहे. ये परेशान हाल पत्रकार आपस में बतियाते रहे कि धन्य हैं हमारे महान पत्रकार जो हमको सादगी का पाठ पढ़ाकर स्लीपर ट्रेन में बिठा गए और वह भी टिकट बिना कनफर्म कराए, और खुद जहाज से उड़ चले. ऐसे पाखंड भरे माहौल में कोई क्या किसी से सबक लेगा और कोई क्यों प्रभाष जी की परंपरा को समझ पाएगा.

चलिए, आलोक तोमर के नाम पर कार्यक्रम नहीं हुआ या उनके नाम वाला घोषित एवार्ड नहीं दिया गया लेकिन ऐसा भी नहीं है कि वहां एवार्ड का कार्यक्रम ही नहीं हुआ. वहां पुरस्कार प्रोग्राम जमकर हुआ और थोक के भाव में पत्रकारों को पुरस्कार बांटे गए. ऐसे ऐसे पत्रकारों को पुरस्कार दिए गए जो दलाली और बदनामी के शिरमौर हैं. सहारा समय के एमपी छत्तीसगढ़ हेड मनोज मनु इसके उदाहरण हैं जिन्हें हाल में ही मध्य प्रदेश सरकार ने सर्टिफिकेट दिया है कि उनके आने से उनके चैनल को विज्ञापन मिलने लगा है और वे बहुत अच्छे से सब कुठ बना-बुझा कर रखते हैं, सो, इस कारण वे महान पत्रकार हैं.

महानता के सरकारी सर्टिफिकेट पर पत्रकारिता में महान बने लोगों को अगर प्रभाष परंपरा न्यास पुरस्कृत करा रहा है या पुरस्कृत किए जाने को मौन सहमति दे रहा है तो इसे शर्मनाक ही कहा जाएगा. और, इंदौर प्रेस क्लब को भी यह सोचना चाहिए कि आखिर वे अपने पुरस्कारों को किस दिशा में ले जा रहे हैं. मनोज मनु तो सिर्फ एक उदाहरण मात्र हैं. पुरस्कृत कई पत्रकारों के नाम और उनके नेक-अनेक काम गिनाए जा सकते हैं. ये दौ कौड़ी के दलाल टाइप लोग ठीकठाक ब्रांड नाम वाले मीडिया हाउसों में बड़े पदों पर हैं, इसलिए उन्हें महान मान लिया जाता है, और शायद इसलिए भी कि तू मुझे सम्मानित कर, मैं तुझे ओबलाइज करूंगा वाला कोई अंतरसंबंध होता है.

काश ये लोग भ्रष्टाचार से नाराज उस साहसी युवक को सम्मानित कर पाते जिसने एक बड़े कांग्रेसी नेता से दिल्ली में प्रेस कांफ्रेंस में सरेआम सवाल किया, चप्पल दिखाया और इसी 'अपराध' के कारण कांग्रेसी चम्मच पत्रकारों का लात-हाथ खाने को मजबूर हुआ. जाहिर है, उस अदम्य साहसी युवक ने अनेक युवकों को आइना दिखाया और नेताओं को डरने पर मजबूर किया कि ज्यादा यूं ही उड़ोगे तो चपलियाये जाओगे, सरेआम. नेताओं और सिस्टम पर जनदबाव न रहेगा तो यह तंत्र लूटने खाने के लिए ही आपरेट होता रहेगा. यह जन दबाव व जन भय ही है जो तंत्र को लोक के लिए काम करने को मजबूर करता है अन्यथा अपने ओरीजनल तेवर में तो तंत्र लूट खाने को नाम है. उस युवक सरीखे अनेक युवक हैं जो पत्रकारिता में या पत्रकारिता से इतर बड़ा काम कर रहे हैं, जिन्हें मीडिया को, प्रेस क्लबों को रिकागनाइज करने की जरूरत है. अन्यथा भ्रष्टाचारियों, दलालों और भरे पेट वालों की लंबी लाइन है जो सम्मान लेने के लिए कुछ भी देने को तैयार रहते हैं.

इंदौर से लौटे कई लोगों ने कहा कि वे आगे से प्रभाष परंपरा न्यास के कार्यक्रमों में शरीक नहीं होंगे क्योंकि इसका इस्तेमाल कुछ लोग खुद को चमकाने के लिए कर रहे हैं, न कि प्रभाष जोशी की परंपरा को आगे बढ़ाने के लिए. इस आयोजन ने पाखंड की कई परतें उजागर कर दी हैं. न सिर्फ प्रभाष जोशी की परंपरा अपमानित हुई है बल्कि उनके अजीज शिष्य आलोक तोमर व उनकी पत्नी का भी अपमान किया गया है. किन्हीं जुगाड़ू अफसर की पत्नी स्वाति तिवारी द्वारा प्रभाष जोशी पर लिखित किताब के इस समारोह में लोकार्पित किए जाने के पीछे की सच्चाई की कथा अभी हाल में ही पता चली और भड़ास4मीडिया पर प्रकाशित भी हुई है.

कोई एक दो पाप या ब्लंडर नहीं हैं, कई बड़े पाप हैं और ये जानबूझकर किए गए हैं या इन्हें मौन सहमति दी गई है. इन पापों के तले दबे इंदौर प्रेस क्लब और प्रभाष परंपरा न्यास के लोग अगर आत्मग्लानि महसूस करें सकेंगे तो संभव है उन्हें खुल दिल वाले संत प्रभाष जोशी और मस्तमौला शेर आलोक तोमर माफ कर दें, अन्यथा बेहयाई भरे जीवन जीने के लिए सारे रास्ते खुले पड़े हैं, चतुर घाघ सरीखी दिखावटी मुस्कान के हर मौके पड़े हैं.

लेखक यशवंत सिंह भड़ास4मीडिया से जुड़े हैं.

अमर उजाला की साजिश

मुंबई में 13 जुलाई को हुए बम धमाकों के बाद उत्तर प्रदेश के अखबारों में आजमगढ़ फोबिया फिर सुरुर पर है और पत्रकारों में कथित खुफिया सूत्रों, कथित स्रोतों की आड़ में खूब कुलांचे मार-मार के फर्जी खबरें छापने की होड़ मच गई है। मिसाल के तौर पर अमर उजाला लखनऊ के 16 जुलाई के अंक को ही लेते हैं जिसकी मुख्य पृष्ठ की पहली लीड स्टोरी ''संजरपुर के सैकड़ों मोबाइल फोन पर खुफिया निगाहें'' छपी है। यह खबर न सिर्फ आजमगढ़ को बदनाम करने की शातिर कोशिश है बल्कि कई पहलुओं से तो हास्यास्पद भी बन गई है।

मसलन यह खबर अपने आजमगढ़ को बदनाम करने राजनीतिक और सांप्रदायिक उद्देश्य को पूरा करने के लिए यहां तक कहती है कि ''लखनऊ जेल में बंद आईएम के आंतकी सलमान व तारिक कासमी से भी पूछताछ की गई है।'' जबकि सच्चाई तो यह है कि सलमान जिसे कुछ महीनों पहले ही दिल्ली की एक अदालत ने दिल्ली विस्फोटों के आरोप से बरी कर दिया है और वह अब दूसरे आरोप में जयपुर की जेल में बंद है। और जहां तक तारिक कासमी से पूछताछ की बात है तो उसकी सच्चाई यह है कि बकौल तारिक के ही उससे किसी ने इस मामले में पूछताछ नहीं की है। यह बात खुद तारिक कासमी से मिलकर आए उनके वकील और चर्चित मानवाधिकार नेता मो. शोएब ने इस झूठी खबर को पढ़ने के बाद पीयूसीएल की तरफ से जारी प्रेस नोट में कहा।

समझा जा सकता है कि आजमगढ़, जहां पर एक विजबिल मुस्लिम आबादी है, को आतंकवाद का गढ़ साबित करने के लिए रिपोर्टर ने कैसे झूठे और हास्यास्पद तर्क तक गढ़ने से गुरेज नहीं किया है। अपनी इस मनगढ़ंत कहानी को आगे बढ़ाते हुए और अपनी सांप्रदायिक कल्पनाशीलता को विस्तार देते हुए रिपोर्टर आगे कहता है कि उनसे ''यह जानने की कोशिश की गई है कि उनके कौन से साथी पूर्वांचल में सक्रिय हैं और मुंबई में विस्फोट के बारे में क्या पूर्व में उनके आकाओं के साथ कोई चर्चा हुई थी।'' खबर की भाषा और उसकी दिशा से जाहिर है कि पत्रकार मुंबई विस्फोट की आड़ में आजमगढ़ को आतंकवाद की नर्सरी साबित करने की कोशिश कर रहा है। इस कोशिश की राजनीतिक दिशा क्या हो सकती है यह समझना मुश्किल नहीं है। क्योंकि इसी तारिक कासमी का आजमगढ़ से 12 दिसंबर 2007 को अपहरण किया गया, जिस पर जांच के लिए पुलिस टीम भी गठित हुई, को बाद में 22 दिसंबर को बारबंकी से गिरफ्तार करने का दावा किया गया था, जिस पर मायावती सरकार ने इस बात की सत्यता के लिए आरडी निमेष जांच आयोग का गठन भी किया है।

इसी तरह मीडिया जो पहले उसके अपहरण पर आजमगढ़ में हो रहे धरने प्रदर्शनों की खबर छाप रही थी, पर जैसे ही एसटीएफ ने बाराबंकी से उसे आतंकी बताकर गिरफ्तार करने की झूठी कहानी गढ़ी तो मीडिया को सांप सूघ गया और वो पुलिस की हां में हां मिलाने लगी। लेकिन इस राजनीतिक दिशा की तथ्यहीन खबरें सिर्फ लखनऊ ब्यूरो से ही नहीं हैं बल्कि पृष्ठ बारह पर छपे सुमंत मिश्र की ''मुबई सीरियल ब्लास्ट से जुड़े अधिकारी जता रहे हैं ऐसी आशंका'' शीर्षक वाली खबर में भी देखी जा सकती है। जहां वे भी दोहराते हैं कि ''लखनऊ एटीएस की टीम जेल में सलमान से पूछताछ कर इस तरह के उम्र वाले लड़कों के बारे में जानकारी हासिल करने में जुटी है।'' जाहिर है कि ऐसे तथ्यहीन और हास्यास्पद खबर लिखने के पीछे एक सोची समझी रणनीति काम रही है जिसमें सिर्फ लखनऊ ब्यूरो ही नहीं पूरे अखबार समूह में एक आम सहमति बनी है कि हमें ऐसी फर्जी खबरें ही करनी हैं।

जबकि सलमान की कहानी यह है कि उसे कुछ महीनों पहले ही दिल्ली की अदालत ने उसे दिल्ली विस्फोटों के आरोप से न सिर्फ बरी किया बल्कि उसकी गिरफ्तारी के संदर्भ में पुलिस कार्यप्रणाली पर तल्ख सवाल भी उठाए। दरअसल कोर्ट ने यह पाया कि सलमान, जिसे एटीएस ने उत्तर प्रदेश के सिद्धार्थ नगर से गिरफ्तार करने का दावा किया था, के साथ पुलिस ने जिस नेपाली पासपोर्ट के बरामद होने का दावा किया था उसे वह कभी पेश नहीं कर पाई। दूसरे, पुलिस ने एक फर्जी फोटो स्टेट जिसमें सलमान की उम्र 27 साल दिखाई गई थी जबकि उसकी वास्तविक उम्र पन्द्रह साल थी को कोर्ट में पेश किया और तीसरे पुलिस ने सलमान के पास से जो सउदी अरब का हेल्थ कार्ड बरामद होने का दावा किया था वो भी फर्जी निकला। कोर्ट ने पुलिस और एटीएस पर सलमान जैसे निर्दोष को फंसाने के लिए पुलिसिया करतूतों की काफी आलोचना की और सख्त हिदायत दी कि पुलिस अपनी कार्यप्रणाली में सुधार लाए।

यहां दिलचस्प बात है कि सलमान की गिरफ्तारी के वक्त भी मीडिया द्वारा इन्हीं झूठे सुबूतों का पुलिंदा बनाकर उसकी एक खतरनाक छवि बनाने का प्रयास किया गया था। दरअसल सलमान के सहारे पुलिस और खुफिया एक मीडिया ट्रायल कर रहे हैं कि सलमान भले ही सुबूतों के आभाव में बरी हो गया है, लेकिन वह आतंकवादी है। यह राज्य की नीति है कि वह अपने द्वारा अपने हितों के लिए पकड़े गए लोग जो न्यायालय से बरी भी हो गए हैं, उनको समाज में अस्वीकार बना दें। इसी खबर में कहा गया है कि सलमान जो की छोटी उम्र का है, इसलिए उससे छोटी उम्र के लड़कों के बारे में जानकारी इकट्ठी की जा रही है के सहारे छोटी उम्र के आजमगढ़ के लड़कों पर जहां एक ओर मनोवैज्ञानिक रुप से दबाव बनाया जा रहा है। वहीं समाज के नजर में उन्हें एक संदिग्ध मुस्लिम पीढ़ी के बतौर स्थापित करने की कोशिश की जा रही है।

यह कोशिश बाटला हाउस के वक्त भी की गई थी, जब 16 साल के साजिद को बाटला हाउस (बाटला हाउस कांड को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने अपनी वेब साइट पर फर्जी मुठभेड़ो की लिस्ट में रखा है।) फर्जी मुठभेड़ में मारकर कांग्रेस ने आजमगढ़ के बच्चों पर यह आरोप मढ़ा कि वह आतंकवादी होते हैं। इस रणनीति से फायदा यह है कि हिंदुत्वादी दिशा अख्तियार कर चुकी राजनीतिक माहौल में टेरर पालिटिक्स को लंबे समय तक चलाया जा सके। ''फिर आजमगढ़ के चार युवकों के नाम'' शीर्षक से वाराणसी डेट लाइन से छपी खबर में इस पूरे फर्जीवाड़े का सबसे हास्यास्पद पंक्ति तो ''इंडियन मुजाहिद्दीन के साथ आजमगढ़ के लोग काफी तेजी से जुड़ रहे हैं। आजमगढ़ के ही किसी व्यक्ति को ही इंडियन मुजाहिद्दीन में महत्वपूर्ण पद दिए जाने की बात चल रही है।'' समझा जा सकता है कि पत्रकार की समझ यह है कि इंडियन मुजाहिद्दीन कांग्रेस-भाजपा की तरह से मास बेस पार्टी है जिसमें लोग अपने समर्थकों के साथ, बैनर झंडा और वाहन जुलूसों के साथ नारे लगाते हुए शामिल होने जा रहे हों और अपने किसी छुटभैया नेता को पद दिलाना चाह रहे हैं।

दरअसल पत्रकारों की ऐसी मानसिकता लगातार पुलिसिया केस डायरी की नकल उतारने को ही पत्रकारिता समझ बैठने के चलते पैदा हो जाती है, जो अस्वाभाविक नहीं है। जिसे हमने काफी करीब से देखा कि कई बार बाहरी पत्रकार आते हैं तो इंडियन मुजाहिद्दीन का दफ्तर खोजते हैं। क्यों कि उनके भाई-बंधु पत्रकारों ने फर्जी खबरों के माध्यम से इस बात को प्रसारित किया है कि आजमगढ़ में इंडियन मुजाहिद्दीन का दफ्तर है, जिसे देखने का कौतूहल उनमें आजमगढ़ पहुंचते ही हो जाता है। और जो नहीं आ पाते हैं अपने कल्पनाशील चछुओं से महानगरों में ही बैठे-बैठे ही देखने लगते हैं।

लखनऊ श्रमजीवी पत्रकार संघ और जर्नलिस्ट यूनियन फॉर सिविल सोसाइटी द्वारा जारी.