रविवार, 1 मई 2011

दो पैग और अखबार के मालिक से मेरी भिड़ंत

शाम के वक्त एक साहित्य प्रेमी अमीर मित्र का फ़ोन आया उनके फ़ार्म हाउस मे वाईन एंड डाईन का न्योता था। मुफ़्त मे पैग लगाने की खुशी में मैं दनदनाता पहुंच गया। वहां एक सज्जन और विराजमान थे। मित्र ने मेरा उनसे परिचय करवाया वे मध्य भारत के सबसे बड़े अखबार के मालिक और संपादक थे। उन्होंने ससम्मान मुझसे हाथ मिलाया बैठने के बाद मित्र ने मेरा परिचय दिया भाई साहब बड़े अच्छे व्यंग्यकार हैं।

यह सुनते ही सज्जन के चेहरे पर तिरस्कार के भाव उभरे मन ही मन उन्होंने अनुमान लगाया जरूर इस लेखक की चाल होगी पार्टी के बहाने अपने लेख पढ़वायेगा। पर टेबल पर रखी शीवाज रीगल की बोतल देख उनकी नाराजगी कुछ कम हो गयी, मन मार कर बोले चलिये इसी बहाने आपसे मुलाकात हो गयी। मैंने भी मन ही मन सोचा भाड़ में जाये, मुझे इससे क्या लेना-देना अपन तो पैग लगाओ। यहां वहां की चर्चा होती रही और अखबार के मालिक साहब इंतजार करते रहे कि कब मैं अपनी रचना उन्हें दिखाउंगा।

दो राऊंड होने के बाद भी जब लेख प्रकाशित करने की कोई चर्चा न हुई तो मालिक साहब का माथा ठनका पांच राउंड होने के बाद तो सब गहरे मित्र बन जाते हैं, ऐसे में बात टालते न बनेगी। मालिक साहब ने बात मेरे लेखन पर मोड़ी भाई साहब कोई रचना साथ लाये हैं क्या? मैंने पूछा किस लिये? हकबकाये मालिक साहब ने कहा अखबार मे छापने के लिये और क्यों? मैंने पूछा किस अखबार में, वे बोले मैं छापूंगा तो अपने अखबार में ही ना, लगता है आप मेरी बात कुछ समझे नहीं। मैंने कहा आप तो कोई अखबार निकालते ही नहीं। मालिक साहब ने असहाय भाव से मित्र की ओर देखा मानो कह रहे हों दो पैग में लग गयी है।

मालिक साहब ने याद दिलाया वे फ़लां अखबार के मालिक-संपादक हैं। मैंने पलट कर जवाब दिया वो अखबार नहीं सरकार का मुखपत्र है भाट और चारण जैसा अंतर यही है कि सरकार की छोटी-मोटी गलतियां छाप दी जाती हैं। हां कभी-कभी उस में मंहगाई का जिक्र भी कर दिया जाता है। मालिक साहब बैकफ़ुट पर थे। आप गलत समझ रहे हैं हमारा अखबार दूसरों से अलग है, हम किसी के दबाव मे नहीं आते। मैंने कहा आम जनता को टोपी पहनाइएगा मुझे नहीं। सरकार के हर विभाग में खुला कमीशन बंट रहा है, घपले हो रहे हैं और आपके पत्रकार भी भीख मांगते वहीं पाये जाते हैं कभी छापा आपने।

क्या छापते हैं आप "अन्ना हजारे ने अपने भांजे को कांग्रेस मे भरती किया", "बाबा रामदेव खुद को राम कह रहे हैं"। शांति भूषण नजर आ रहा है आपको भ्रष्टाचार का प्रदूषण नहीं, सलवा जुड़ूम के नाम पर हो रहा अत्याचार तो खैर आपको मालूम ही न होगा, नक्सलवाद की चक्की पर पिस रहे आदिवासियों के बारे में क्या किया आपने, कुछ नहीं। छापते क्या हैं आप चमत्कारी अंगूठी फ़र्जी बाबाओ के विज्ञापन और तो और वो लिंगवर्धक यंत्र कभी उपयोग किया है आपने क्या मालिक साहब जो दूसरो को बतलाते हो।

बात बिगड़ती देख मालिक साहब ने समझौते का प्रयास किया, आप इतने जोशीले आदमी हैं लेख भी जानदार लिखते होंगे! मैंने कहा लिखता तो हूं पर छापने की हिम्मत आप में न होगी। छाप पायेंगे उन कंपनियो की काली करतूत जिनके शेयर आपने सस्ते दामों में ले रखे हैं। जिनके करोड़ों रुपये के एड आपके मुखपत्र को मिलते हैं। आप तो छापिये दलित लड़की से बलात्कार, सड़क हादसे, ब्लागरों से चुराये हुये लेख। हे फ़्री प्रेस के चाचा, फ़्री में ब्लागरों के लेख पाओ और जनता को दिखाने के लिये बड़े नाम की तारे और मच्छर पर घटिया तुकबंदी छपवाओ। आज भारत का चौथा स्तंभ न बिकता तो मजाल है भारत मे ये भ्रष्टासुर पैदा हो जाता।

अब तक चार राउंड हो चुके थे और मालिक साहब भी क्रोध में आ चुके थे। वे जोर से चिल्लाये रे बेवकूफ़ भारतीय आम आदमी, इसके जिम्मेदार खुद तुम लोग हो, तुमको हर चीज फ़ोकट में चाहिये। पैसा जेब से एक न निकलेगा बस दुनिया मुफ़्त में तुम्हारी रक्षा करे। दो रुपये किलो वाला सस्ता चावल जैसे 2 रुपये में सस्ता अखबार चाहिये तो कनकी ही मिलेगा बासमती नहीं। बीस रुपया महीना खर्चा कर एक पत्रिका तो खरीदना नहीं है कहां से रूकेगा भ्रष्टाचार। कागज का दाम मालूम है? अखबार के खर्चे कैसे पूरे होते होंगे कभी सोचा है? तुम खुद पैसा कमाओ तो ठीक और हम लोग तुम्हारे लिये भूखा मरें।

बात ध्यान से सुन हम लोग तुझको अखबार बेचते नहीं हैं, सस्ते दाम में तुझे देकर तुझको खरीद लेते हैं। फ़िर हम तुझे बेचते हैं उन कंपनियो को जो हमें तुम्हारा सही दाम देती हैं, उन नेताओं को जो तुम्हारे पैसे में ऐश करते हैं और हमें भी करवाते हैं। पैसा देकर तुम्हारी तरह फ़ोकट नहीं। और सुन तुझे और लोग भी खरीदते हैं सीआईए से लेकर तमाम विदेशी ताकि वे अपने हिसाब का लेख छपवा कर भारत में मन माफ़िक जनमत तैयार करवाएं और अपना माल खपाएं। किसी पेपर में पढ़ता है क्या कि अमेरिकी विमान रूस के समान विमान से डेढ़ गुनी कीमत के पड़ते हैं। या परमाणु रियेक्टर की कीमतों का तुलनात्मक अध्ययन। नहीं न क्यों, क्योंकि तुम लोग पैसा नहीं देते उन लोग देते हैं। तो हे फ़ोकट चंद भिनभिनाना बंद कर और चैन से मुझे पैग लगाने दे।

मैंने फ़जीहत से बचने के लिये अपने मित्र की ओर देखा पर वह तो चैन से मजा ले रहा था, अब मुझे समझ में आया ये सारा युद्ध प्रायोजित था, मैं और मालिक साहब रोमन ग्लेडिएटर की तरह उसके मजे के लिये लड़ रहे थे। मैंने प्रतिरोध किया देशभक्ति भी कोई चीज है कि नहीं। मालिक साहब बोले है क्यों नहीं हम लोग दाल मे नमक की तरह उसको भी इस्तेमाल करते हैं, तभी तो ये देश आज बचा हुआ है राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले में हम कोई समझौता नहीं करते अरे भाई अगर देश ही नही रहेगा तो फ़िर तो हम पत्रकार ही जूते खायेंगे और देश को बचाएंगे। पर भाई लोगों को जब इंडिया टीवी देखने मे मजा आ रहा है तो कोई क्यों खोजी पत्रकारिता कर अपना जीवन बरबाद करें।

अब तक पांच राउंड हो चुके थे और हम दोनों गहरे मित्र भी बन चुके थे। मालिक साहब बोले यार वैसे तू बंदा बड़ा जोशीला है तुझे व्यस्त न किया गया और सरकारी माल न दिया गया तो बड़ा नक्सली नेता बन जायेगा और मारा जायेगा। एक काम कर भाई तू कल से मेरे आफ़िस आजा दिन भर यहां-वहां से सामग्री चुराना और जरा जोश भर के उसमे हेर-फ़ेर कर देना तू भी खुश रहेगा और मुझे भी चैन से पीने और जीने देगा। मालिक साहब के विदा होने के बाद मैंने दोस्त को धिक्कारा साले तू अपने ही दोस्तों का मजा लेता है। मित्र भी दार्शनिक बन गया मालिक साहब की बात भूल गया कोई भी चीज फ़ोकट में नहीं मिलती बेटा दारू का खर्चा मैंने किया था तो मजे लेने के लिये ही।

अब हिंदी बाजार में कदम रखेगा 'फिल्‍मफेयर'

वर्ल्‍डवाइड मीडिया द्वारा प्रकाशित सिनेमा आधारित मंथली अंग्रेजी पत्रिका फिल्‍मफेयर अब देशी होने जा रहा है. कंपनी इस मैगजीन को हिंदी में भी लांच करने की तैयारी कर रही है. कंपनी ने ये तैयारी महिलाओं पर आधारित अपनी पत्रिका फेमिना के हिंदी वर्जन की सफलता के बाद कर रही है. उल्‍लेखनीय है कि वर्ल्‍डवाइड मीडिया टाइम्‍स ग्रुप और बीबीसी मैगजीन्‍स का संयुक्‍त वेंचर है.

ग्रुप ने शुरुआत फिल्‍मफेयर और फेमिना के अंग्रेजी वर्जन से किया था. इसके बाद फेमिना को हिंदी में लांच किया गया. जिसे काफी सफलता मिली. इसके बाद फेमिला को तमिल में लांच किया गया, इसे भी बढि़या रिस्‍पांस मिला. इससे उत्‍साहित कंपनी ने अब फिल्‍मफेयर का भी हिंदी संस्‍करण लाने की तैयारी कर रही है. इसमें कंटेंट और विज्ञापन के बीच 75 और 25 फीसदी का रेशियो होगा. हिंदी के बाद फिल्‍मफेयर को दूसरी क्षेत्रीय भाषाओं में भी लांच किए जाने की योजना है.


दैनिक जागरण की प्रिंटलाइन

दैनिक जागरण ने चुपके-चुपके प्रिंटलाइन में बदलाव कर दिया है. संस्थापक स्व. पूर्णचंद्र गुप्त और पूर्व प्रधान संपादक स्व. नरेंद्र मोहन को मुख्य प्रिंटलाइन से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है और इन दोनों स्वर्गीयों को एक छोटे से बाक्स में समेटकर मुख्य प्रिंटलाइन के ठीक उपर सिरमौर की तरह सजा दिया गया है. मतलब, दोनों ही बातें आ गईं. प्रिंट लाइन से बाहर भी ये लोग हो गए और प्रिंटलाइन के सिरमौर भी बन गए.

मुख्य प्रिंटलाइन में झन्नाटेदार तरीके से इंट्री मारी है महेंद्र मोहन गुप्त ने. वहीं महेंद्र मोहन गुप्त जो समाजवादी पार्टी से सांसद हैं, और कई महीने पहले कानपुर में एक आईपीएस अफसर के हाथों सड़क पर जलील होने को मजबूर हुए थे. वही महेंद्र मोहन गुप्त जिनके बैटे शैलेश गुप्त हैं और जो जागरण ग्रुप की पूरी मार्केटिंग के सर्वेसर्वा हैं. कहा जाता है कि इन दिनों, जबसे नरेंद्र मोहन जी का निधन हुआ, महेंद्र मोहन गुप्त उर्फ एमएमजी का सिक्का चलने लगा है. खुद एमएमजी सांसद व प्रबंध संपादक हैं और उनके पुत्र शैलेश गुप्त मार्केटिंग डायरेक्टर. तो, पिता-पुत्र की इस समय जागरण ग्रुप में तूती बोलती है.

आई-नेक्स्ट अखबार को शैलेश गुप्त का ब्रेन चाइल्ड माना जाता है. इस अखबार में संजय गुप्त का कभी हस्तक्षेप नहीं हो सका. शैलेश गुप्त के इशारे पर आलोक सांवल ने जैसा चाहा, वैसा इस अखबार को उलटा-पुलटा-सीधा-साधा-टेढ़ा-मेढ़ा चलाया व दौड़ाया. कहा जाता है कि आलोक सांवल और शैलेश गुप्त ने जागरण में ट्रेनिंग एक साथ ली. शैलेश ने डायरेक्टरी की ट्रेनिंग ली और आलोक ने शैलेश के नेतृत्व में यसमैन बनकर ब्रांडिंग की ट्रेनिंग ली. बाद में आलोक सांवल जागरण से जुदा हो गए और दुबारा तब लौटे जब शैलेश गुप्त ग्रप में काफी प्रभावशाली स्थिति में आ गए थे और उनकी तूती बोलने लगी थी. तब उन्हें आई-नेक्स्ट के लिए शैलेश गुप्त लेकर आए. संजय गुप्त ने जागरण ग्रुप के नए अखबार के एडिटोरियल कंटेंट में बतौर संपादक हस्तक्षेप करने की कई बार कोशिश की लेकिन आई-नेक्स्ट की एडिटोरियल टीम को हर बार यही मैसेज आलोक सांवल की तरफ से दिया गया कि संजय गुप्त की सिर्फ सुनो, करो वही जो मैं कहता हूं. यहां मैं का मतलब आलोक सांवल उर्फ शैलेश गुप्त से होता था.

एमएमजी और शैलेश गुप्त के प्रभाव का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जागरण की प्रिंट लाइन में बदलाव ला दिया गया और संपादक संजय गुप्त के ठीक उपर प्रबंध संपादक महेंद्र मोहन गुप्त का नाम डाल दिया गया. इससे एक मैसेज तो मार्केट में चला ही गया कि संजय गुप्त से भी बड़ा कोई संपादक जागरण में है जिनका नाम महेंद्र मोहन गुप्ता है. तो देखा जाए तो नरेंद्र मोहन के निधन के बाद उनके पुत्रों को दोयम करने की एमएमजी-शैलेश की कोशिशों को काफी मजबूती मिल चुकी है और अब संजय व संदीप गुप्ता को इन लोगों ने काफी अलग-थलग कर रखा है.

((दैनिक जागरण, मेरठ संस्करण में प्रकाशित प्रिंटलाइन))

ये स्टोरी दैनिक जागरण से जुड़े कई लोगों से बातचीत पर आधारित है. संभव है, स्टोरी में जो तथ्य दिए गए हैं व जो बातें कही गई हैं, उनमें सच्चाई की मात्रा में थोड़ी बहुत कमी-बेसी हो, इसलिए पाठकों से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अपनी जानकारी व ज्ञान के आधार पर इस स्टोरी के तथ्यों को समृद्ध करें, सच के करीब ले जाएं.